आधुनिक समाज में सिनेमा का योगदान निबंध

जीवन/समाज में सिनेमा का योगदान निबंध 

यह तो सर्वविदित है की वर्तमान समय मे मनोरंजन का सर्वाधिक प्रचलित साधन सिनेमा है। सिनेमा से अधिक प्रभावशाली और आम जनता तक सरलता से पहुंचने वाला माध्यम और कोई नहीं है, कहते हैं कि संगीत हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है जो की सिनेमा की ही देन है। सिनेमा ने व्यक्ति के जीवन के हर आयामों को छुआ है फिर चाहे वो सामाजिक, राजनितिक, धार्मिक,या आध्यात्मिक हो जब से सिनेमा का अभिर्भाव हुआ, तब से फिल्मो के माध्यम से समाज में चल रही सामाजिक कुरीतियों को जनता के मध्य पेश किया गया और उन्हें जागरूक भी क्या गया।

कहते है सिनेमा उद्योग भारत का सबसे पुराना उद्योग है और आज इस उद्योग ने बहुत ही वृहद् रूप ले लिया है, इसके माध्यम से करोड़ो लोगो की आजीविका चलती है, भारतीय सिनेमा की सबसे महत्वपूर्ण देन हिंदी फ़िल्में है जिसने हिंदी को ना केवल राष्ट्रीय अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर परभी महत्वपूर्ण स्थान दिलाया। भारत की
आज़ादी के पश्चात सिनेमा जगत में बनी देश भक्ति की फिल्मो ने लोगो के दिलो में देश भक्ति की मशाल को जलाय रखा है आज भी जब हम पुराने देश भक्ति के गीत सुनते है तो उसी वक़्त मन देश भक्ति कि भावना से ओत प्रोत हो जाता है, भारतीय सिनेमा ने अपनी फिल्मो के माध्यम से देश की सभ्यता एवं संस्कृति को जीवित
रखने का सफलतम प्रयास किया है।

कहते है फ़िल्में उस समाज का आईना होती है जिस समाज में आप रहते है, सिनेमा मनुष्य के जीवन में सकरात्कम बदलाव लाने के साथ साथ उसमे कुछ कर गुजरने की चाह को भी आगे बढ़ाती है। इस परिपेछ्य में मैं एक पुरानी फिल्म की चर्चा करना चाहूंगी उसका नाम था घर-घर की कहानी, मुझे लगता है कि वर्तमान में हर
अभिवावक को अपने बच्चो को ये फिल्म ज़रूर दिखानी चाहिये इस फिल्म के माध्यम से ये सन्देश देने की कोशिश की गयी है कि एक परिवार में न केवल माता-पिता अपितु बच्चो का भी ये कर्तव्य है की वो संयमित जीवन जीते हुए फिजूलखर्ची से बचे एवं जितनी चादर है उतना ही पैर फैलाएं, यह तो नहीं पता की इस फिल्म ने
जब ये प्रदर्शित हुई तब लोगो पे क्या प्रभाव डाला होगा परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में इसका प्रभाव निश्चित रूप से स्थाई साबित होगा। 

वर्तनाम समय में सिनेमा का स्वरुप पहले की अपेक्षा काफी बदल गया है, अब फ़िल्में बनाने का उद्देश्य सिर्फ अधिक से अधिक धन उपार्जन रह गया है, निदेशक को यह फर्क नहीं पड़ता की प्रस्तुत फिल्म का जनता पे सकरात्मक या नकरात्मक प्रभाव पड़ रहा है, अब सिनेमा सिर्फ और सिर्फ एक व्यवसाय हो गया है जहाँ लोगो की
भावना एवं संवेदना को बिलकुल नजरअंदाज कर दिया जाता है, आज भी जब हम पुरानी फिल्मों के गीत सुनते है तो उसे गुनगुनाने लगते है परन्तु वर्तमान में आयी फिल्मो के गीत कब आये और चले गए पता ही नहीं चलता।

ऐसा नहीं है की वर्त्तमान समय में सिनेमा ने हमे अच्छी फिल्मे नहीं दी है बहुत सी ऐसी फिल्मे है, जैसे उरी द सर्जिकल स्ट्राइक, पैड मन, टॉयलेट एक प्रेम कथा, मंगलयान, तारे ज़मीन पर आदि परन्तु इनकी संख्या उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिए, मैं यह मानती हूँ की आजकल लोगो का नजरिया सिनेमा को लेकर बदल गया है, लोग फिल्मों को केवल और केवल एक मनोरंजन का साधन मात्र मानते है, उन्हें ये बिलकुल फर्क नहीं पड़ता की दो घंटे की फिल्म से उन्होंने क्या सीखा।

हालांकि आज के तनावग्रस्त वातावरण में लोगो को मनोरंजन की बहुत आवश्यकता है और इसे पूरा करने के लिए सिनेमा से अच्छा ,कोई ओर माध्यम नहीं है, परन्तु जिस प्रकार स्वयं को शारीरिक रूप से स्वस्थ रखने के लिए हम भोजन का चुनाव करते है ठीक उसी प्रकार हमे अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए ये चुनने की आवश्यकता है की हमे क्या देखना चाहिए और क्या सुनना।

अंततः मैं ये कहना चाहूंगी की सिनेमा ने मनुष्य के जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है अतः निर्माताओं एवं निर्देशकों को फिल्म बनाते वक़्त इस बात का ध्यान रखना चाहिए की वो जनता को जो कुछ भी दिखाना चाहते है वो तर्कसंगत होने के साथ-साथ मनुष्य के जीवन में सकरात्मक प्रभाव लाये जो की देश विकास में
हितकर हो।

जागृति अस्थाना-लेखक

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