रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध

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झांसी की रानी लक्ष्मी बाई को नहीं जानता, उनके बारे में कौन नहीं जानता। अंग्रेजों से आखिरी पल तक लड़ती रही थी। आज हम इस लेख में रानी लक्ष्मी बाई के बारे में ही जानेंगे…

रानी लक्ष्मीबाई का परिचय

लक्ष्मीबाई का जन्म 13 नवंबर सन् 1835 ई. में काशी में हुआ था और लक्ष्मीबाई का पालन-पोषण बिठूर में हुआ था। लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपन्त और उनकी मां का नाम भागीरथी बाई था। जब वह चार-पांच वर्ष की थी, उस वक्त इनकी मां का देहांत हो गया था। लक्ष्मीबाई का वास्तविक नाम मनुबाई था।

सन् 1842 में मनुबाई का विवाह झांसी के अंतिम पेशवा राजा गंगाधर राव के साथ हुआ था। विवाह के 9 वर्ष बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन वो जन्म के तीन महीने बाद ही चल बसा। पुत्र वियोग में गंगाधर राव बीमार पड़ गए तब उन्होंने दामोदर राव को गोद ले लिया।

सन् 1853 में राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई। उनकी मृतु के बाद अंग्रेजों ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को अनाथ ओर असहाय समझ कर उनके दत्तक पुत्र को अवैध घोषित कर दिया और रानी लक्ष्मीबाई को झांसी छोड़ने को कहने लगे, लेकिन लक्ष्मीबाई ने साफ कह दिया था कि झांसी मेरी है और मैं इसे प्राण रहते नहीं छोड़ सकती।

रानी लक्ष्मीबाई ने अपना सारा जीवन झांसी को बचाने में निकाल दिया। अवसर पाकर एक अंग्रेज सेनापति ने रानी को साधारण स्त्री समझ के झांसी पर आक्रमण कर दिया, लेकिन रानी ने अंग्रेजों के दांत खटे कर दिए। अंत में लक्ष्मीबाई को वहां से भाग जाने के लिए विवश होना पड़ा। रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया, मगर लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हुई।

रानी लक्ष्मीबाई की शिक्षा

रानी लक्ष्मीबाई की शिक्षा उनके पिता ने पूरी करवाई थी, क्योंकि उस दौर में बेटियों की शिक्षा पर ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। साथ ही उन्होंने तरह-तरह की निशानेबाजी लगाना, घेराबंदी करना, युद्ध की पूरी शिक्षा, सैन्य शिक्षा, घुड़सवारी, तीरंदाजी करना आदि की शिक्षा प्राप्त थी। रानी लक्ष्मीबाई पढ़ाई से लेकर अस्त्र-शस्त्र में बहुत ही निपुण थी और वह एक साहसी योद्धा के रूप में निखरकर सामने आई।

स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका

गंगाधर राव के निधन के बाद झांसी पर ब्रिटिश हुकूमत की नजर थी। ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी ने दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झांसी पर अपनी हुकुमत चलाने का फैसला किया। इसके खिलाफ रानी लक्ष्मीबाई ने लंदन की अदालत में मुकदमा भी दर्ज किया, मगर उनका मुकदमा खारिज कर दिया गया।

अंग्रेजों ने झांसी पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। झांसी के खजाने पर कब्जा कर रानी लक्ष्मीबाई को झांसी का किला छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया। अंत में रानी झांसी का किला छोड़कर रानीमहल में चली गई, मगर उन्होंने हार नहीं मानी और अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने का फैसला किया।

रानी ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए स्वयंसेवक सेना का गठन किया और अपनी सेना में महिलाओं को भी शामिल किया। साथ ही उन्हें लड़ाई लड़ने के लिए प्रशिक्षण भी दिया। कई राज्य के राजाओं ने रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। अंग्रेजों ने एक बार अपने सेना सहित झांसी को चारों तरफ से घेर लिया। ऐसे में रानी लक्ष्मीबाई ने हार नहीं मानी और अपनी छोटी सेना के साथ अंग्रेजों का मुकाबला किया।

सन् 1858 में ग्वालियर के पास कोटा में एक बार फिर से रानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजो के बीच युद्ध हुआ। इस दौरान अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई को बरछी मार दी, जिससे उनके शरीर से खूब बहने लगा। इसके बाद भी रानी नहीं रूकी और युद्ध करती रही। मगर जब शरीर से खून ज्यादा बहने लगा तब वह थोड़ी कमजोर हुई। उस दौरान एक अंग्रेज ने रानी लक्ष्मीबाई के सर पर तलवार से जोरदार प्रहार किया। इससे रानी लक्ष्मीबाई बुरी तरह घायल हो गई और घोड़े से नीचे गिर पड़ी। इस युद्ध में लक्ष्मीबाई का घोड़ा भी वीरगति को प्राप्त हो गया और रानी भी वीरगति को प्राप्त हुई। रानी चाहती थी कि उनके शरीर को ब्रिटिश सैनिकों को द्वारा नहीं खोजा जाए, इसलिए रानी की सेना के कुछ लोग उन्हें पास के गंगादास मठ में ले गए, जहां उनकी मृत्यु के बाद संस्कार किया गया। मृत्यु के समय वह 29 साल की थीं।

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