राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है। राय समाजिक और शताब्दी के ऐसे निर्माता रहे है, जिन्होंने उन सब समस्याओं को दूर किया, जो हमारी प्रगति के मार्ग में बाधक बन रही थी। वे मानवतावाद के सच्चे पुजारी थे। उन्हें पुनर्जागरण और सुधारवाद का प्रथम प्रर्वतक कहा जाता है। आज हम इस आर्टिकल में राजा राममोहन राय के जीवन के बारे में साझा करेंगे।
राजा राममोहन राय
राजाराममोहन राय का जन्म बंगाल के राधानगर में 22 मई सन् 1772 को हुआ था। उनके पिता का नाम रामकंतो रॉय और माता का नाम तैरिनी था। राम मोहन का परिवार वैष्णव था, जो कि धर्म संबन्धित मामलों में बहुत कट्टर था। राय की शादी 9 वर्ष की उम्र में ही कर दी गई। मगर उनकी पत्नी का कुछ ही समय में देहांत हो गया। इसके बाद 10 वर्ष की उम्र में उनकी दूसरी शादी की गई, जिसे उनके 2 पुत्र हुए, लेकिन 1826 में उस पत्नी का भी देहांत हो गया और इसके बाद उसकी तीसरी पत्नी भी ज्यादा समय जीवित नहीं रह सकी।
राजा राम मोहन रॉय को कई भाषाएं जैसे- अरबी, फारसी, अंग्रेजी और हिब्रू का ज्ञान था। राजा राम मोहन रॉय का प्रभाव लोक प्रशासन, राजनीति, शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में स्पष्ट था। राय ने 15 साल की उम्र में बंगाल में पुस्तक लिखकर मूर्तिपूता का विरोध शुरू किया था। 16 वर्ष की आयु में उन्होंने प्रचलित अंधविश्वासों पर एक निबंध लिखा था। राजाराममोहन राय बहुविवाह एवं बालविवाह के कट्टर विरोधी थे। राजा राम मोहन राय ने अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त कर मैथ्स, फिजिक्स, बॉटनी और फिलॉसफी जैसे विषयों को पढ़ने के साथ-साथ वेदों और उपनिषदों को भी जीवन के लिए अनिवार्य बताया है। राय का ब्रिस्टल में 27 सितंबर, 1833 में देहांत हो गया था।
सामाजिक जीवन और कार्य
बंगाल में 19वीं सदी में समाज सुधार की लहर उठी थी, उस वक्त उसे पुनर्जागरण का नाम दिया गया था। 19वीं सदी की शुरुआत में बंगाल में बड़ी भीषण प्रथा का प्रचलन था। बंगाल के लोग इसे सती प्रथा कहकर प्रतिष्ठित करने लगे। कुलीन परिवारों में जोर जबरदस्ती से सती के नाम पर नई विधवा की आहुति दे दी जाती थी। यह बड़ी विकराल परिस्थिति थी, जिसका लोग सती प्रथा की आड़ में पालन किया करते थे।
इस प्रथा के खिलाफ कलकत्ता के राजा राममोहन राय ने एक मुहीम छेड़ी। राजा राममोहन राय ने भारत के सभी धर्म ग्रंथों का विश्लेष्ण करके यह बताया कि कहीं भी यह नहीं कहा गया हैं कि स्त्री को अपने पति की मौत पर अपने आप को आग में झोक देना चाहिए। राम मोहन राय ने अपनी बातों के आधार पर अंग्रेजी शासन को भी सहमत होने के लिए बाध्य किया।
साल 1828 में राय ने अपने साथियों संग ब्रह्म सभा का गठन किया। बाद में इसका नाम ब्रह्म समाज रखा गया। ब्रह्म समाज के दवाब में आकर अंत में सरकार ने 1829 में एक कानून बनाया, जिसमें सती प्रथा का समर्थन करने वाले को सजा देने का प्रावधान रखा गया। जो लोग स्त्री को सती करने में मदद करते थे। अब उन्हें सख्त सजा दी जाने लगी। फिर तेजी से यह कुप्रथा समाज से पूर्ण रूप से खत्म हो गई।
राजा राममोहन राय की विचारधारा
1. राजा राममोहन राय पश्चिमी आधुनिक विचारों से काफी प्रभावित थे।
2. राय बुद्धिमान और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भी अपना बल देते रहते थे।
3. राय का यह मानना था कि धार्मिक, रूढ़िवादिता, सामाजिक जीवन को क्षति पहुंचाती है।
योगदान
राजा राम मोहन राय ने धार्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में अपना पूर्ण योगदान दिया है।
धार्मिक
राजा राममोहन राय का सबसे पहला प्रकाशन वर्ष 1803 तुहफात उल मुवाहिदीन आया था। इसमें हिंदुओं के तर्कहीन धार्मिक विश्वासों और भ्रष्ट प्रथाओं का उपचार किया है। राय ने वर्ष 1814 में मूर्ति पूजा, जातिगत कठोरता, निरर्थक अनुष्ठानों, अन्य सामाजिक बुराइयों का विरोध करने के लिए कोलकाता के अंदर आत्मीय सभा की स्थापना भी की थी। राय ने ईसाई धर्म के कर्मकांड की आलोचना भी की थी। राय ने ईसा मसीह को ईश्वर के अवतार के रूप में खारिज कर दिया था।
समाज सुधार
राजा राम मोहन राय सुधारवादी धार्मिक संघों की कल्पना राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के उपकरणों के रूप में की थी। उन्होंने आत्मीय सभा 1815, कोलकाता यूनिटेरियन एसोसिएशन 1821, ब्रह्मा सभा 1828 की स्थापना की थी। राय ने जाति व्यवस्था, छुआछूत, अंधविश्वास, नशीली दवाओं आदि का विरोध दिया।
शैक्षणिक सुधार
राजा राम मोहन राय ने वर्ष 1817 में हिंदू कॉलेज खोजने के लिए डेविड हेयर के प्रश्नों का समर्थन किया था। राजा राम मोहन राय के अंग्रेजी स्कूल में मैकेनिक और वोल्टेयर के दर्शन को पढ़ाया जाता था। वर्ष 1825 में वेदांत कॉलेज की स्थापना की गई थी, जिसमें भारतीय शिक्षण और पश्चिम में सामाजिक के साथ भौतिक विज्ञान दोनों पाठ्यक्रमों को साथ में पढ़ाया जाता था।