दहेज प्रथा : एक अभिशाप
(Dowry : A Curse)
सदियाँ बीत जाने के बावजूद, आज भी, नारी शोषण से मुक्त नहीं हो पाई है। उसके लिए दहेज सबसे बड़ा अभिशाप बन गया है। लड़की का जन्म माता-पिता के लिए बोझ बन जाता है। पैदा होते ही उसे अपनी ही माँ द्वारा जनमे भाई की अपेक्षा दोयम दर्जा प्राप्त होता है। यद्यपि माता-पिता के लिए ममत्व में यह समानता की अधिकारिणी है, तथापि कितने ही उदार व्यक्ति हों, लड़के की अपेक्षा लड़की पराई समझी जाती है।
दहेज समाज की कुप्रथा है। मूल रूप में यह समाज के आभिजात्य वर्ग की उपज है। धनवान् व्यक्ति ही धन के बल पर अपनी अयोग्य कन्या के लिए योग्य वर खरीद लेता है और निर्धन वर्ग एक ही जाति में अपनी योग्य कन्या के लिए उपयुक्त वर पा सकने में असमर्थ हो जाता है।
धीरे-धीरे यह सामाजिक रोग आर्थिक कारणों से भयंकरतम होता चला गया। दहेज के लोभ में नारियों पर अत्याचार बढ़ने लगे। प्रतिदिन अनेक युवतियाँ दहेज की आग में जलकर राख हो जाती हैं अथवा आत्महत्या करने पर विवश होती हैं।
समाज-सुधार की नारेबाजी में समस्या का निराकरण सोच पाने की क्षमता भी समाप्त होती जा रही है। दहेज-प्रथा को मिटाने के लिए कठोर कानून की बातें करनेवाले विफल हैं।
हिंदू कोड बिल के पास हो जाने के बाद जो स्थिति बदली है, यदि उसी के अनुरूप लड़की को कानूनी संरक्षण प्राप्त हो जाए तो दहेज की समस्या सदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो सकती है। पिता अपनी संपत्ति से अपनी पुत्री को हिस्सा देने की बजाय एक-दो लाख रुपए दहेज देकर मुक्ति पा लेना चाहता है। इस प्रकार सामाजिक बुराई के साथ ही नारी के कानूनी अधिकार का परोक्ष हनन भी होता है। अभी तक बहुत कम पिताओं ने ही संपत्ति में अपनी बेटी को हिस्सा दिया है। लड़की के इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए न्यायालय की शरण लेनी पड़े तो उसे प्राप्त होनेवाले धन का अधिकांश भाग कोर्ट-कचहरी के चक्कर में व्यय हो जाता है।
यदि गहराई से देखें तो हर सामाजिक बुराई की बुनियाद में आर्थिक कारण होते हैं। दहेज में प्राप्त होनेवाले धन के लालच में स्त्री पर अत्याचार करनेवाले दोषी हैं, परंतु उसका कानूनी अधिकार न देकर इस स्थिति में पहुँचा देनेवाले भी कम दोषी नहीं हैं। दहेज पर विजय पाने के लिए स्त्री को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाना आवश्यक है। रूढ़िग्रस्त समाज की अशिक्षित लड़की स्वावलंबी बनेगी कैसे? दहेज जुटाने की बजाय पिता को अपनी पुत्री को उच्च-से-उच्च शिक्षा दिलानी चाहिए। उसे भी पुत्र की तरह अपने पैरों पर खड़ा करना जरूरी है।
दहेज की ज्यादा समस्या उसी वर्ग में पनप रही है, जहाँ संपत्ति और धन है। धनी वर्ग पैसे के बल पर गरीब लड़का खरीद लेते हैं और गरीब की लड़की के लिए रास्ता बंद करने का अपराध करते हैं। लड़के और लड़की में संपत्ति का समान बँटवारा विवाह में धन की फिजूलखर्ची की प्रवृत्ति को कम कर सकता है और इस प्रकार विवाह की शानशौकत, दिखावा, फिजूलखर्ची एवं लेन-देन स्वतः समाप्त हो सकता है।
किसी भी लड़की को यदि उसके पिता की संपत्ति का सही अंश मिल जाए तो उसकी आर्थिक हैसियत उसे आत्मबल प्रदान करे और अपने जीवन-यापन का सहारा पाने के बाद वह स्वयं लालची व क्रूर व्यक्तियों से संघर्ष कर सकेगी। आर्थिक पराधीनता और पिता के घर-द्वार बंद होने के कारण लाखों अबलाओं को अत्याचार सहने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
दहेज प्रथा: अभिशाप पर निबंध
Essay on dahej pratha in Hindi for class 6, 7, 8, 9 10.
यूँ तो मानव समाज एवं सभ्यता के समक्ष कई सारी चुनौतियाँ मुँह बाए खड़ी हैं, परंतु इनमें से एक चुनौती ऐसी है, जिसका कोई भी तोड़ अभी तक समर्थ होता नहीं दिख रहा है। कहना नहीं होगा कि विवाह संस्कार से जुड़ी हुई यह सामाजिक विकृति दहेज प्रथा ही है। दहेज कुप्रथा भारतीय समाज के लिए एक भयंकर अभिशाप की तरह है। हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का यह एक बड़ा कलंक है।
‘दहेज‘ शब्द अरबी भाषा के ‘जहेज‘ शब्द से रूपान्तरित होकर उर्दू और हिन्दी में आया है, जिसका अर्थ होता है ‘सौगात‘। इस भेंट या सौगात की परम्परा भारत में कब से प्रचलित हुई, यह विकासवाद की खोज के साथ जुड़ा हुआ तथ्य है। प्राचीन आर्य ग्रन्थों के अनुसार, अग्निकुंड के समक्ष शास्त्रज्ञ विद्वान विवाह सम्पन्न कराता था तथा कन्या का हाथ वर के हाथ में देता था।
कन्या के माता-पिता अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुरूप कन्या के प्रति अपने स्नेह और वात्सल्य के प्रतीक के रूप में कुछ उपहार भेंट स्वरूप दिया करते थे। इस भेंट में कुछ वस्त्र, गहने तथा अन्न आदि होते थे। इसके लिए ‘वस्त्रभूषणालंकृताम्’ शब्द का प्रयोग सार्थक रूप में प्रचलित था। इन वस्तुओं के अतिरिक्त दैनिक जीवन में काम आने वाली कुछ अन्य आवश्यक वस्तुएँ भी उपहार के रूप में दी जाती थीं। उपहार की यह प्रथा कालिदास के काल में भी थी।
स्नेह, वात्सल्य और सद्भावनाओं पर आधारित यह प्रतीक युग में परिवर्तन के साथ-साथ स्वयं में परिवर्तित होता गया। स्नेहोपहार की यह भावना कालक्रम में अत्यन्त विकृत होती चली गयी। मध्य युग में वस्त्र, रत्न, आभूषण, हाथी, घोड़े तथा राज्य का कोई भाग-यहाँ तक कि दास-दासियाँ भी दहेज में देने की प्रथा चल पड़ी।
आधुनिक दहेज प्रथा मूलतः धनी लोगों की देन है, जिसकी चक्की में निर्धन भी पिस रहे हैं। इस प्रथा के पीछे लाभ की दुष्प्रवृत्ति छिपी हुई है। आज दहेज प्रथा भारत के सभी क्षेत्रों और वर्गों में व्याप्त है। इस कुप्रथा ने लड़कियों के पिता का जीवन दूभर कर दिया है। लड़के के पिता अपने लड़के का कथित सौदा करने लगे हैं। यह घोर नौतिक पतन नहीं तो और क्या है? इस कुप्रथा के चलते कितने लड़की वाले बेघर एवं बर्बाद हो रहे हैं। कितनी ही विवश कन्याओं को आत्महत्या जैसा कुकर्म करना पड़ रहा है। कितनी वधुएँ दहेज की खातिर जीवित जला कर मारी जा रही हैं।
गाँधी भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक, नैतिक और सामाजिक स्वतंत्रता के भी हिमायती थे। उन्होंने दहेज प्रथा की क्रूरता और भयावहता से क्षुब्ध होकर कहा था-“दहेज की पातकी प्रथा के खिलाफ़ ज़बरदस्त लोकमत बनाया जाना चाहिए और जो नवयुवक इस प्रकार गलत ढंग से लिए गए धन से अपने हाथों को अपवित्र करे, उसे जाति से बहिष्कृत कर देना चाहिए।” आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने भी इस राष्ट्रीय कलंक की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट किया। पं. जवाहर लाल नेहरू ने इस दहेज दानव के विनाश के लिए जनता का उद्बोधन किया। इन्हीं के प्रधानमंत्रित्वकाल में सन् 1961 ई. में ‘दहेज निरोधक अधिनियम’ बनाया गया, किन्तु जनता के समर्थन अभाव में यह कानून की पुस्तकों की ही शोभा बनकर रह गया।
यह कुप्रथा कानून बना देने मात्र से ही समाप्त नहीं हो सकती। इस सामाजिक कोढ़ से तभी मुक्ति मिल सकती है, जब युवा वर्ग इस ओर अग्रसर हो। दहेज जैसी कुरीति को दूर करने के लिए देश के युवा वर्ग को आगे आना ही होगा।
दहेज़ प्रथा पर निबंध
500 -600 शब्द में।
Essay on dahej pratha in hindi for class 6, 7, 8, 9 10.
आज दहेज की प्रथा को देश भर में बुरा माना जाता है। इसके कारण कई दुर्घटनाएँ हो जाती हैं, कितने ही घर बर्बाद हो जाते हैं। आत्महत्याएँ भी होती देखी गई हैं। नित्य-प्रति तेल डालकर बहुओं द्वारा अपने आपको आग लगाने की घटनाएँ भी समाचार-पत्रों में पढ़ी जाती हैं। पति एवं सास-ससुर भी बहुओं को जला देते या हत्याएँ कर देते हैं। इसलिए दहेज प्रथा को आज कुरीति माना जाने लगा है। भारतीय सामाजिक जीवन में अनेक अच्छे गुण हैं, परन्तु कतिपय बुरी रीतियाँ भी उसमें घुन की भाँति लगी हुई हैं। इनमें एक रीति दहेज प्रथा की भी है।
विवाह के साथ ही पुत्री को दिए जाने वाले सामान को दहेज कहते हैं। इस दहेज में बर्तन, वस्त्र, पलंग, सोफा, रेडियो, मशीन, टेलीविजन आदि की बात ही क्या है, हजारों रुपया नकद भी दिया जाता है। इस दहेज को पुत्री के स्वस्थ शरीर, सौन्दर्य और सुशीलता के साथ ही जीवन को सुविधा देने वाला माना जाता है। दहेज प्रथा का इतिहास देखा जाए तब इसका प्रारम्भ किसी बुरे उद्देश्य से नहीं हुआ था।
दहेज प्रथा का उल्लेख मनु स्मृति में ही प्राप्त हो जाता है, जबकि वस्त्राभूषण युक्त कन्या के विवाह की चर्चा की गई है। गौएँ तथा अन्य वाहन आदि देने का उल्लेख मनुस्मृति में किया गया है। समाज में जीवनोपयोगी सामग्री देने का वर्णन भी मनुस्मृति में किया गया है, परन्तु कन्या को दहेज देने के दो प्रमुख कारण थे। पहला तो यह कि माता पिता अपनी कन्या को दान देते समय यह सोचते थे कि वस्त्रादि सहित कन्या को कुछ सामान दे देने उसका जीवन सुविधापूर्वक चलता रहेगा और कन्या को प्रारम्भिक जीवन में कोई कष्ट न होगा।
दूसरा कारण यह था कि कन्या भी घर में अपने भाईयों के समान भागीदार है, चाहे वह अचल सम्पत्ति नहीं लेती थी, परन्तु विवाह के काल में उसे यथाशक्ति धन, पदार्थ आदि दिया जाता था, ताकि वह सुविधा से जीवन व्यतीत करके और इसके पश्चात भी उसे जीवन भर सामान मिलता रहता था। घर भर में उसका सम्मान हमेशा बना रहता था। पुत्री जब भी पिता के घर आती थी, उसे अवश्य ही धन-वस्त्रादि दिया जाता था। इस प्रथा के दुष्परिणामों से भारत के मध्ययुगीन इतिहास में अनेक घटनाएँ भरी पड़ी हैं। धनी और निर्धन व्यक्तियों को दहेज देने और न देने की स्थिति में दोनों में कष्ट सहने पड़ते रहे। धनियों से दहेज न दे सकने से दु:ख भोगना पड़ता रहा है।
समय के चक्र में इस सामाजिक उपयोगिता की प्रथा ने धीरे-धीरे अपना बुरा रूप धारण करना आरम्भ कर दिया और लोगों ने अपनी कन्याओं का विवाह करने के लिए भरपूर धन देने की प्रथा चला दी। इस प्रथा को खराब करने का आरम्भ धनी वर्ग से ही हआ है क्योंकि धनियों को धन की चिंता नहीं होती। वे अपनी लड़कियों के लिए लड़का खरीदने की शक्ति रखते हैं। इसलिए दहेज-प्रथा ने जघन्य बुरा रूप धारण कर लिया और समाज में यह कुरीति-सी बन गई है। अब इसका निवारण दुष्कर हो रहा है। नौकरी-पेशा या निर्धनों को इस प्रथा से अधिक कष्ट पहुँचता है। अब तो बहुधा लड़के को बैंक का एक चैक मान लिया जाता है कि जब लड़की वाले आयें तो उनकी खाल खींचकर पैसा इकट्ठा कर लिया जाये ताकि लड़की का विवाह कर देने के साथ ही उसका पिता बेचारा कर्ज से भी दब जाये।
दहेज प्रथा को सर्वथा बंद नहीं किया जाना चाहिए परन्तु कानून बनाकर एक निश्चित मात्रा तक दहेज देना चाहिए। अब तो पुत्री और पुत्र का पिता की सम्पत्ति में समान भाग स्वीकार किया गया है। इसीलिए भी दहेज को कानूनी रूप दिया जाना चाहिए और लड़कों को माता-पिता द्वारा मनमानी धन दहेज में लेने पर प्रतिबंध लग जाना चाहिए। जो लोग दहेज में मनमानी करें उन्हें दण्ड देकर इस दिशा में सुधार करना चाहिए। दहेज प्रथा को भारतीय समाज के माथे पर कलंक के रूप में नहीं रहने देना चाहिए।
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