मानव और समाज पर निबंध

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यूनान के महान दार्शनिक अरस्तु के अनुसार,”मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है” अक्षरश: सत्य प्रतीत होती है, यदि हम इसे सरल भाषा में कहें तो दोनों समाज और मनुष्य एक दूसरे के पूरक हैं यदि समाज का निर्माण मनुष्यों ने किया तो समाज ने उनके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मनुष्य पृथ्वी पे आया तो अकेला था परन्तु यहाँ वह अकेले अपना जीवन यापन नहीं कर सकता। एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता पड़ी, जिसके लिए समाज या परिवार का होना आवश्यक हुआ और फिर परिवार से समाज और समाज से शहर, राज्य और राष्ट का निर्माण हुआ। सामाजिक जीवन से पृथक मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, मनुष्य का चहुमुखि विकास समाज मे रह कर ही संभव है, समाज ही व्यक्ति के लिए वो सारी सुविधाएँ उपलब्ध कराता है जो उसके विकास के लिए परमावश्यक होती है।

मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं के लिए समाज की और समाज को अपने अस्तित्व के लिए मनुष्य की ज़रूरत होती है। ये भी माना जाता है कि प्राचीन काल में जब मनुष्य अकेला था तो स्वयं को जीव जंतुओं से बचाने के लिए उसने झुंडो में रहना प्रारम्भ किया धीरे-धीरे ये झुंड परिवार में बदले और परिवारों ने अपनी आवश्यकतों की पूर्ति के लिए विकास करना शुरू किया तब जाके समाज का निर्माण हुआ।

पुराने समय में संयुक्त परिवार हुआ करते थे और उनमे आदर्शता थी जो एक सभ्य समाज का निर्माण करती थी, परन्तु अब परिस्थिति बिलकुल बदल गयी है अब लोग स्वयं को समाज का हिस्सा तो मानते है, परन्तु समाज के प्रति उनके क्या कर्तव्य है भूलते जा रहे हैं, अब मनुष्य संक्युत परिवार में रहना उचित नहीं समझता वह स्वयं के स्वार्थ को सर्वोपरि मानते हुए आत्मक्रेंदित होता जा रहा है।

वर्तमान में मनुष्य का दृष्टिकोड़ समाज को लेकर बदल गया है अब उसके लिए समाज का अर्थ सिर्फ उस क्षेत्रफल तक सिमित हो गया है जहाँ वो रहता है लेकिन शायद लोग ये भूलते जा रहे हैं की समाज का अस्तित्व मनुष्य जीवन की आधारशिला है, यदि मनुष्य समाज में प्रसिद्धि पाता है तो लोगो के बीच उसका आदर सम्मान बढ़ जाता है, आज के समय में मनुष्य जिस भी क्षेत्र में उन्नति कर रहा है वो समाज की ही तो देन है।

यदि कोई भी मनुष्य किसी भी क्षेत्र में उपलब्धि प्राप्त करता है तो सर्वप्रथम उसे उस समाज के नाम से संबोधित किया जाता है जिसका वो हिस्सा होता है, मनुष्य अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का निर्बाह समाज में ही रहकर कर सकता है यदि समाज न हो तो फिर इन अधिकारों और कर्तव्यों का क्या मतलब।

समाज मनुष्य के लिये वो प्रतिविम्ब है जिसमे प्रत्येक दिवस वो अपनी अभिलाषाओं एवं आकांक्षाओं को पूरा होते देखता है, हालांकि ये सर्वविदित है की समाज का निर्माण मनुष्य ने किया है परन्तु वर्तमान में समाज मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। समाज मनुष्य के विचारो की अभिव्यक्ति करता है अरे ये समाज ही तो है जो आदिकाल से मनुष्य की सभ्यता एवं संस्कृति का उद्घोषक रहा है, मनुष्य का शरीर तो नाशवान है परन्तु समाज हमेशा जीवित रहता है उन गौरव गाथाओं के परिचायक के रूप में जो उसके अस्तित्व की पहचान को परिलक्षित करती है।

अतः समाज और मानव दोनों एक सिक्के के दो पहलु हैं एक शरीर तो दूसरा आत्मा, तभी तो कहा गया है की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। 

जागृति अस्थाना-लेखक

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