किसानो पर क़र्ज़ का बोझ निबंध

ग्रामीण ऋणग्रस्तता भारतीय किसानो का कभी साथ नहीं छोड़ते है। एक प्रसिद्ध कहावत है भारतीय किसान कर्ज में पैदा होता है, क़र्ज़ में रहता है और क़र्ज़ में मर जाता है। गरीबी के स्तर में वृद्धि के साथ ऋण का स्तर भी बढ़ रहा है। किसान वह है जो हर दिन खेतों में मेहनत से अनाज उगाता है और उसी की वजह से हम अनाज ,फल सब्ज़ियों से युक्त भोजन कर पाते है। क़र्ज़ का बोझ पीढ़ी दर पीढ़ी किसानो पर जुल्म करता आया है। इस विकराल और भयानक समस्या की चपेट में आने वालों की संख्या अब बहुत बढ़ रही है। इसके अलावा इसे सुलझाने की पुरज़ोर कोशिशे की जा रही है।

ग्रामीण ऋणग्रस्तता ने हमारे देश के ग्रामीण सामाजिक ढाँचे के महत्वपूर्ण अंग किसानो को जैसे निगल लिया है। ऋण के बोज से वह दबते चले आ रहे है। इसलिए इसने लम्बे समय से योजनाकारों और समाजशास्त्रियों और अन्य लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया है। पैसा उधार लेते समय उधारकर्ता  यानी किसान अपनी ऋण  चुकाने की क्षमता पर ध्यान नहीं देता है। उसके लिए थोड़ा क़र्ज़ भी जाल बन जाता है जिससे किसान चाहकर भी बाहर नहीं निकाल पाता है।

क़र्ज़ का बोझ किसान के लिए फांसी का फन्दा बन जाता है। कृषि कार्यो के लिए धन की आवश्यकता होने पर उधार लेने में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन ऋणग्रस्तता तब पैदा होती है जब किसान की आय प्रयाप्त रूप से ऋण चुकाने के लिए काफी नहीं होता है। जब किसान अपनी आय को अनुत्पादक उद्देश्यों के लिए खर्च कर देता है और अपने ऋण के भुगतान करने के उद्देश्य से बचत नहीं करता। जब किसान ऋण चुकाने में विफल हो जाता है तब उसका ऋण जमा हो जाता है और किसान ऋण के बोझ से दब जाता है।

भारत में  ग्रामीण ऋणग्रस्तता का प्रमुख कारण है किसानो की गरीबी। गरीब किसानो को विभिन्न प्रयोजनों के लिए उधार लेना पड़ता है। कभी कभी कठिन परिस्थितियों जैसे मानसून की विफलता के कारण और बाढ़ आदि के कारण फसले खराब हो जाती है।  उन्हें बीज ,खाद और महंगे कीटनाशक खरीदने पड़ते है जिसके लिए उन्हें फिर से उधार लेना पड़ता है।

किसान ना चाहते हुए भी उधार लेने के लिए मज़बूर हो जाते है। आपको कई ऐसे गाँव मिल जाएंगे जहाँ किसान क़र्ज़ में गले तक डूब गए है। अत्यधिक किसान है जिन्होंने खेती करने से पहले बैंक से कर्ज़ा लिया था।  किसी कारण खेत तबाह हो गए या उत्पादन बेहद कम हुआ तब किसान उन्हें बेचकर भी क़र्ज़ चूका ना पाए। इस चक्कर में किसान को दोबारा बैंक से लोन मिलने में बड़ी मुश्किल होती है और कर्जा नहीं मिल पाता है।

मौजूदा ग्रामीण ऋणग्रस्तता का सबसे महत्वपूर्ण कारण पैतृक ऋण है। कई कृषक शुरुआत में कृषि संबंधित उत्पादनो के लिए पैतृक ऋण के भारी बोझ से दब जाते है और आजीवन उस ऋण को खींचते है और उसे अपना समाजिक दायित्व मानते है। इस ऋण की वजह से मज़बूर होकर किसानो ने आत्महत्या कर ली है। अत्यंत गरीबी और ऋण के बोझ से लदकर वह अपने परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी जुटाने में असमर्थ है। इस सोच से परेशान होकर किसान आत्महत्या जैसे संगीन कदम उठा रहे है। ज़रूरत है सरकार उचित कदम उठाये और किसान और उनके पीढ़ीदर चले आ रहे ऋण से उन्हें मुक्ति दिलाये।

संस्थागत एजेंसियों ने निर्धारित समय पर ऋण स्वीकृत होने और फिर भुगतान किये जाने से पहले कुछ औपचारिकताएं निर्धारित की है। ऐसे नियम  उधार लेने को प्रोत्साहित करता है। आम तौर पर खड़े होने वाले किसान विभिन्न प्रकार के विवादों जैसे पारिवारिक और सीमा रेखा पर विवाद ,फसलों की चोरी और पैतृक भूमि विभाजन उन्हें मजबूर करते है कि वह अदालतों तक जाए। इस तरह के मुकदमो में उन्हें भारी खर्चा झेलना पड़ता है। पुनः किसान इन खर्चो को पूरा करने हेतु क़र्ज़ में डूब जाते है।

किसानो का अशिक्षित होना एक बहुत बड़ी समस्या है।  उनकी अज्ञानता का फायदा साहूकार और महाजन उठाते है। किसानो के परिवारों की  संख्या अत्यधिक होने के कारण उन्हें जीवनयापन और ज़रूरतों को पूरा करने  के लिए पैसे उधार लेने पड़ते है। रीति रिवाज़ो और परम्पराओं से  संबंधित धार्मिक अनुष्ठानो में किसान खर्च ज़्यादा कर बैठते है इस वजह से भी उन्हें उधार लेना पड़ता है।निजी मनी लेंडर्स प्रति वर्ष ५० से ६० प्रतिशत के बीच अलग -अलग ब्याज दरों पर शुल्क लगा रहे है और गलत खाते भी पाए गए है।

किसान लेनदारों को  अपनी भूमि के भाग देने के लिए मज़बूर हो जाते है। कर्ज देने वाले किसानो को अपनी भूमि गिरवी रखने के लिए विभिन्न तरीको से उकसाते है। साहूकार किसानो  की  फसल को बहुत कम कीमत पर खरीदते है। किसान अपनी किश्त चुकाने के लिए लेनदारों को अपनी फसल कम कीमत पर  बेचनी पड़ती है। जब किसानो का क़र्ज़ पर्याप्त मात्रा में जमा हो जाता है तो साहूकार उनसे उनकी जमीन हड़प लेते है।

किसानो की अवस्था दिन प्रतिदिन दयनीय होती जा रही है। उनकी व्यथा और कष्ट  असहनीय है। इस तरह से वह मनी लेंडरो के चंगुल में फंसकर रह जाते है और उनसे बाहर नहीं निकल पाते है। ब्याज के उच्च दरों में  भी किसानो को उधार लेने के लिए मज़बूर करता है। दर अलग -अलग होती है लेकिन किसानो की आर्थिक स्थिति के कारण ब्याज हर साल जमा होता है। ब्याज का उच्च दर किसानो की ऋणग्रस्तता को समाप्त नहीं कर पाता है। आज़ादी के पश्चात भारत में भी अपने संग्रह की कठोर प्रक्रिया के साथ अधिक भूमि राजस्व समस्या को बढ़ाने में जिम्मेदार है। बाढ़ और सूखे की समस्या के कारण भी किसान ऋण लेने को मज़बूर हो जाते है और उससे कभी  निकल नहीं पाते है।

ऋणग्रस्तता को समाप्त करने के लिए सरकार ने उठाये है कुछ ज़रूरी कदम

उधार लेने की आवश्यकता को दूर करना।

भूराजस्व के प्रभावी बोझ को कम करने और संग्रह में भुगतान को सुविधाजनक बनाये जाने के लिए कदम उठाये गए।

किसानो को प्रयाप्त सिंचाई की सुविधा प्रदान की गयी।

ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देना।

संचार और परिवहन के साधनो से क्षेत्र में सुधार लाना और विपणन की सुविधाएं उपलब्ध कराई गयी।

साहूकारों के हाथों से कृषकों की सम्पत्ति की रक्षा करना। वाणिज्य बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया।

पुराने ऋणों को रद्द करने के लिए उपाय तैयार किया जाना। सरकार को किसानो को कम ब्याज दर पर ऋण देने की व्यवस्था करनी चाहिए।

वर्तमान में वाणिज्य बैंको को कृषि क्षेत्र के लिए अपने वार्षिक ऋण का १८ प्रतिशत प्राथमिकता क्षेत्र के हिस्से के रूप में देना अनिवार्य है।

निष्कर्ष महत्वपूर्ण योजना जैसे लीड बैंक योजना ,ग्राम दत्तक योजना ,सेवा क्षेत्र योजना ,कृषि वित्त निगम के माध्यम से ग्रामीण वित्त से जुड़े है। वर्तमान में देश में 196 क्षेत्रों में ग्रामीण बैंक मौजूद है और इसकी कई शाखाएं है। सरकार ने ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्याओं को हल करने के लिए कई उन्मूलन उपाय किये है और स्थानीय ,सामाजिक और आर्थिक संस्धानों का एकत्रीकरण और नयी कृषि रणनीति अपनायी है। आशा है यह सभी उपाय ग्रामीण ऋणग्रस्तता को दूर करने में कामयाब साबित होगी। किसानो की प्रगति और आर्थिक स्थिति को  सुधारना देश का परम कर्त्तव्य है क्यूंकि यह कहना गलत नहीं होगा की किसान ही देश के अन्नदाता है।

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