बाढ़ का भयंकर दृश्य पर निबंध
प्राकृतिक की अन्य विपदाओं के समान बाढ़ की विपदा भी एक भयंकर विपदा है। इस विपदा से बचने के लिए मानव ने कई प्रकार के साधनों का ईजाद किया है। फिर भी इससे उसे निजात नहीं मिली है। इसलिए यह उसे जब चाहे अपने भयंकर आगोश में लेकर उसके नामोनिशान को मिटा देती है।
प्रकृति का खेल वास्तव में बड़ा ही निराला है। इसे मानव अब तक नहीं समझ पाया है। कभी तो एक बूंद भी कहीं नहीं दिखाई देती है। और कभी भयंकर मूसलाधार वर्षा होने लगती है। और नदियों में इतना उफान आ जाता है। के कहे कोई जमीन शरण लेने के लिए नहीं दिखाई पड़ती है। इस तरह चारों ओर अतिशय बनकर जल ही जल बढ़ा हुआ दिखाई देने लगता है। इस प्रकार के दृश्य को देखकर एक खंड प्रलय का दृश्य उपस्थित हो जाता है। इससे चारों और जाहिदा नीमच जाती है। फिर तो ऐसी तबाही की चर्चा कानो कान चारों ओर फैल जाती है। फिर सबके मन में भय समा जाता है।
पिछले वर्षों में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से परीक्षा उपरांत मैं अपने गांव आया था। जुलाई का महीना था। जून के महीने के समान जुलाई का पहला सप्ताह भी सूखा ही रहा। दूसरे सप्ताह के चढ़ते अचानक ही आकाश में मेघों के दल उमर आए। धीरे-धीरे आपस में टकराने लगी। फिर बिजली की कड़क से सारा आकाश गूंज उठा। उसके बाद मुश्लाधार वर्षा होने लगी। यह क्रम लगातार 1 सप्ताह तक चलता रहा। इसके कारण घर से निकलना बड़ा कठिन हो गया। धीरे – धीरे यह खबर फैल गई कि हमारे आसपास की गंगा नदी अपने दोनों किनारों के ऊपर – ऊपर उफ़न उठी है। यह खबर सुबह की थी। शाम होते-होते यह खबर फैल गई कि भयंकर बाढ़ आ गई है। इससे बच पाना कठिन हो जाएगा।
बाढ़ के भयंकरता कि चर्चा धीरे-धीरे चारों ओर फैल गई । इसे सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए। बाढ़ के भयंकर दृश्य को देखने के लिए में चुपचाप घर से निकल पड़ा। मैं गांव से बाहर आने लगा। बाहर आने के सारे रास्ते बाढ़ की चपेट में आ गए थे। मैं किसी प्रकार अन्य लोगों की तरह गलियों में भरे हुए पानी से निकल कर बाहर आने लगा। गांव से बाहर का मुख्य मार्ग गांव से थोड़ा हटकर जलमग्न हो गया था। मैंने हिम्मत की। उस पर में चल पड़ा। चलते -चलते फिर आगे वह मुख्य मार्ग तीव्र धारा बाढ़ की चपेट में आ गया। इससे वह मार्ग भी टूटकर गढ्ढ़े में बदलने लगा था। कुछ लोग ही उस पर आ जा रहे थे। इससे मुझे पूरा यकीन हो गया कि शायद इस पर सावधान होकर ही आगे बढ़ा जा सकता है। उस धारा में मैंने अपने पैर बढ़ाएं। ऐसा लगा कि अब मेरे पैर बाढ़ में ही घुसने लगेंगे। किसी प्रकार से मैं आगे बढ़ता गया । एक सुरक्षित जवाब जगह पर पहुंच कर मैंने थोड़ा विश्राम किया।
आराम करते हुए मैंने देख लिया है यह बाढ़ का प्रकोप साधारण प्रकोप नहीं है। यह तो ना जाने कितने ही प्राणों को अपना ग्रास बना रहा है। मैंने देखा कि गांव के बाहर का पूरा दृश्य समुद्र के समान बहुत भयंकर लग रहा है। ना जाने कितने छोटे-बड़े प्राणी इस उफनते हुए जल में असहाय और विवश दिखाई दे रहे थे ।उस उफनते हुये जल में मैने देखा किसी मृत माँ की छाती को पकड़े हुए एक अबोध बच्चा इधर उधर होते हुए बह रहा है।मेने जल्दी से उसे बचाने के लिए जैसे ही जल में कदम रखा कि वह देखते-देखते न जाने किधर अदृश्य हो गया ।उसी समय एक भेस भी किनारा खोज रही थी।मेने फिर देखा एक आदमी एक मोटी लकड़ी को पकड़े हुए कोई किनारा चाहता था।लेकिन वह बिल्कुल विवश था।में उसे ऒर अधिक देख पाता कु वह उस भयंकर उफान में न जाने किधर चला गया।
मैं विचार करते हुए बाढ़ के संकटों को बड़ी नजदीक से देख रहा था। मैं यह देख रहा था कि यह बाहर शायद मेरे लिए अभूतपूर्व है। इसकी चपेट में बड़े-बड़े पेड़ और वनस्पतियां सहित अन्य पदार्थ बिना कोई रोक टोक के तूफान के झोंके के समान देखते -देखते ही ना जाने कहां खो जाते हैं। मैंने उसी समय देखा कि एक खाट बड़ी तेजी से बहती चली जा रही है। उस पर लगभग 1 वर्षीय बालक चुपचाप अधजल में पड़ा हुआ बह रहा है। मैं तुरंत ही उसको बचाने के लिए बड़ा और उसके लिए तुरंत ही में जल में तैरना आरंभ कर दिया। इससे पहले कि वह मेरी आंखों से हमेशा के लिए कहीं ओझल ना हो जाए और मैंने उसे बचा लिया।
मैंने उस बाढ़ के भयंकर द्रश्यों में एक यह भी भयंकर दृश्य देखा कि बहते हुए सांड के ऊपर की ओर उठे मुंह पर एक विषैला बड़ा सा नाग फन फैलाए हुए हैं। वह सांड बड़े ही विश्वास पूर्वक उससे तनिक भी भयभीत नहीं हो रहा है। इसे देखते ही कविवर बिहारी का यह दोहा मेरे मस्तिष्क में तुरंत उतर आया।
कहलाने एकत बसत अहि, मयूर, मर्ग, बाघ।
जगत तपोवन सो कियो ,दीरघ ,दाघ ,निदाघ।।
उपयुक्त दोहा का तात्पर्य भी मन ही मन यह उतर आया था कि विपत्ति काल में सभी जीव जंतु अपने-अपने भेदभाव को छोड़कर परस्पर मित्र भाव में रहने लगते हैं।इस तात्पर्य का मैंने साक्षात प्रमाण अपने आसपास देख लिया था। मैंने देखा कि मेरी कुछ दूरी पर कुछ मैडक चुपचाप पड़े हुए हैं। वहीं पर एक दो बड़े जहरीले और भयंकर सांप है। उनसे ही थोड़ा हट कर दो नेवले हैं। इन बड़े जीव धारियों के आसपास अन्य छोटे-छोटे जीव जंतु रेघ रहे हैं ।और सरक रहे हैं ।लेकिन कोई किसी को नुकसान नही पाहुचा रहा है। मैंने मन ही मन ईस बाढ़ का इतना भयंकर दृश्य को देखकर सोचा परस्पर एक दूसरे के बेरि होने वाले प्राणियों ने बेर भाव को त्यागकर सब एक समान ही लग रहे है।और ये सच मे अद्भुत ही था।
कुछ देर बाद में मैं अपने घर लौट चला। गांव में आते देखा कि कई मकान ध्वस्त हो चुके हैं। उसी समय गांव के एक छोर पर बसी हुई अनुसूचित जातियों का आबादी गंगा के उफान में आ गयी थी। उस में रहने वाले लोग अनाथ हो चुके थे। वे त्राहि-त्राहि और बचाओ -बचाओ करते हुए बाढ़ की चपेट में आ गए थे। मगर उन्हें कोई सहारा नहीं दिखाई दे रहा था। मैंने बड़े ही दुखी मन से कहा
“मारे राम ,जीवाबे राम”।