संस्कार के निर्माण में समाज की भूमिका पर निबंध

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प्रस्तावना

जिस तरह से पर्वतों में हिमालय का, जलाशयों में सागर का, ज्योति पिंडों में सूर्य का जो स्थान है वही स्थान हमारे जीवन में संस्कारों का भी है। जिसके माध्यम से ही हमारे चरित्र को बल प्राप्त होता है। वे संस्कार ही हैं, जिनसे विभूषित होकर व्यक्ति का मूल्य और सम्मान बढ़ता है। संस्कार का सही अर्थ होता है संवारना यानी सही आकार प्रदान करना।

जिस प्रकार से उत्तम कोटि का हीरा जब खान से निकाला जाता है, तब पहले उसे साफ किया है और फिर उसे तराशा जाता है, उसके बाद उसे आकार दिया जाता है और फिर उसे पहनने लायक बनाया जाता है। इसी को संस्कार कहते हैं, जिससे उस हीरे की उपयोगिता बढ़ी है, वरना उसकी कोई औकाद नहीं।

ठीक उसी प्रकार से, एक मनुष्य भी अपने संस्कारों द्वारा ही समाज में मान-सम्मान और सुख समृद्धि पाता है। आरंभ में बालक समाज और परिवार द्वारा जिन संस्कारों को ग्रहण करता है, वह आगे चलकर उन्हीं संस्कारों का अनुरूप बनता है। यदि आरंभ में उसे समाज, परिवार और आसपास के माहौल से अच्छे संस्कार मिलेंगे तो वह अच्छा बनेगा, यदि बुरे संस्कार मिलेंगे तो बुरा बनेगा और इसी संबंध में कही गयी कहावत सत्य सिद्ध होती नजर आएगी कि…

बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय।।

संस्कार और समाज

आज भारतीय समाज और संस्कृति भी अपने संस्कारों के लिए ही पूरे विश्व में जानी जाती है। यह भारतीय संस्कारों का ही परिणाम है कि एक समय में भारत विश्व गुरु की पदवी धारण किए हुए था। मेरा यहां संस्कारों से तात्पर्य सनातन धर्म की 16 संस्कारों से नहीं है बल्कि दैनिक आचरण और जीवन शैली से जुड़े उन संस्कारों से है, जिनके चारों और हमारा समाज और जीवन जुड़ा हुआ है। हमारे समाज में एक कहावत भी प्रचलित है कि…

कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर वाणी।।

परंतु इसके बावजूद भी हम एक ऐसे सूत्र में पिरोए हुए हैं जो हम सब को भारतीय होने पर गौरव प्रदान करता है, और यह सूत्र समाज द्वारा दिए गए संस्कारों से ही पिरोया हुआ है। बात की जाए संस्कारों के निर्माण में समाज की भूमिका की तो समाज की बदलती और परिवर्तित होती जीवनशैली भी हमें संस्कार प्रदान करती है। समाज उस दर्पण की भांति है जो हमारे अच्छे व बुरे संस्कारों रूपी प्रतिबिंब को आईने में चित्रित करके संपूर्ण जगत को दिखाता है।

परंतु इसके बावजूद भी हम एक ऐसे सूत्र में पिरोए हुए हैं जो हम सब को भारतीय होने पर गौरव प्रदान करता है, और यह सूत्र समाज द्वारा दिए गए संस्कारों से ही पिरोया हुआ है। बात की जाए संस्कारों के निर्माण में समाज की भूमिका की तो समाज की बदलती और परिवर्तित होती जीवनशैली भी हमें संस्कार प्रदान करती है। समाज उस दर्पण की भांति है जो हमारे अच्छे व बुरे संस्कारों रूपी प्रतिबिंब को आईने में चित्रित करके संपूर्ण जगत को दिखाता है।

संस्कार देने में समाज की भूमिका

कुछ समय पहले एक ऐसा समाज हुआ करता था जहां संस्कारों द्वारा लोगों का सम्मान किया जाता था, कहने का तात्पर्य है कि हम वसुदैव कुटुंबकम की, जिस भावना की बात करते थे उस भावना के अनुसार ही पहले के लोग अपना जीवन व्यतीत किया करते थे। उस समाज की कथनी और करनी में ना पहले कोई अंतर था, कौन है तो उत्तर होता था, उस गांव का ना कि उस कुल या परिवार का। छोटे और बड़े सब अपने अधिकार और कर्तव्य से परिचित हैं।

परंतु आज 21वीं सदी के इस युग में यह सब बातें बीते हुए समाज की लगती हैं, आज तो वास्तविकता कुछ और ही है। आज एक बच्चा साथ रहना नहीं सीख पाता, तो मोहल्ले और समाज को परिवार के रूप में आत्मसात कैसे करेगा? आधुनिकता की इस दौड़ में हमने करोड़ों उसके सालाना पैकेज कैसे प्राप्त करते हैं यह तो सीख लिया किंतु भाई-भाई बनकर रहना भूल गए हैं।

जिस समाज में श्रवण कुमार के मरने की खबर सुनते ही उसके मां-बाप ने प्राण त्याग दिए थे, आज उसी समाज में मां-बाप के रिश्ते को तार-तार करती नूपुर तलवार की खबरें सुर्खियों में है। आज बुजुर्गों के सम्मान के लिए कानून बनाने पड़ गए, आज युवा वर्ग को मार्गदर्शन देने वाले बुजुर्ग भी विलुप्त हो गए हैं। आज सुबह शाम के टहलने की प्रवृत्ति ने मॉर्निंग वॉक की संस्कृति को जन्म दे दिया, जिस कारण यह पंक्तियां भी सत्य हो गई कि…

संस्कारों में आज मिल गया इतना भ्रष्टाचार,
रिश्वत लेकर दीपक भी बांट रहा उजियार

संस्कारों की महत्ता

एक उदाहरण के तौर पर समाज और संस्कृति और संस्कारों के बारे में बताना चाहेंगे, कि एक बार जब स्वामी पूर्णानंद जी के पास एक ठाकुर साहब आए और उनसे तीर्थ जाने की अनुमति मांगी। तब स्वामी जी ने उनके परिवार उनसे पूछा कि तुम्हारे परिवार में कौन-कौन हैं, ठाकुर साहब बोले कि एक वृद्ध बीमार मां है उसकी सेवा के लिए नौकर चाकर। इस पर स्वामी जी ने गुस्से से कहा कि वृद्ध मां की सेवा करना ही सबसे बड़ा तीर्थ है, और उसी से तुम्हें पुण्य मिलेगा। इस बात से स्पष्ट है कि उस ठाकुर के पास दुनिया भर की सारी धन दौलत थी, लेकिन संस्कारों का अभाव था।

निष्कर्ष

इसके विपरीत जाने-माने प्रसिद्ध व्यक्तित्व ध्रुव, भरत, प्रह्लाद, वैज्ञानिक आइंस्टाइन आदि के अनुसार वे जहां पहुंचे हैं, उनमें उनके मां-बाप और समाज द्वारा दिए गए संस्कार ही परिलक्षित होते हैं। आज भी समाज की असली संपत्ति उसके चरित्रवान व सुसंस्कृत व्यक्ति ही हैं। आज भी समाज का असली काम व्यक्ति निर्माण है जो जितना कठिन है उतना ही महत्वपूर्ण भी।

क्योंकि आज भी समाज में ताजमहल बनाने वाले शाहजहां से अधिक महत्वपूर्ण स्थान गुरु रामदास का है, जिन्होंने महान शिवाजी का निर्माण किया था योग शास्त्र और संस्कारों के बल पर। आज भी समाज में गांधीजी की तुलना टाटा के लौह संस्थानों से नहीं की जाती, इसलिए आज आओ हम सब मिलकर ऐसे सुसंस्कृत समाज के निर्माण का संकल्प लें, जो पूरे विश्व के मस्तक पर तिलक की तरह चमके।

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