दहेज प्रथा पर निबंध : dahej pratha par hindi mein nibandh
प्रस्तावना: किंतु आज भौतिकवाद के इस युग में दहेज विवाह की एक शर्त के रूप में कन्या के माता-पिता से मांगा जाता है। लेकिन यहां पर प्रिंस नहीं होता है कि आखिर दहेज प्रथा को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार कौन है? क्योंकि माता-पिता तो अपनी बेटी की खुशी के लिए उसे उपहार स्वरूप दहेज देते हैं, किंतु वर पक्ष के लोग इसका फायदा उठाकर अधिक मांगे करने लगते हैं।
आज वर पक्ष ऐसे ही परिवारों से संबंध स्थापित करना चाहते हैं जिनसे उन्हें अधिकाधिक धन प्राप्त हो सके। परिणाम स्वरूप गरीब माता-पिता अधिक दहेज ना दे पाने के कारण अपनी कन्या का विवाह अधिक अवस्था के पुरुषों से करने के लिए विवश हो जाते हैं,
और यदि किसी कारण से उनकी कन्या का विवाह धनी परिवार में हो भी जाता है, तो माता-पिता अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए ऋण लेकर दहेज देते हैं। लेकिन वहां उनकी बेटी को सर प्रताड़ना ही मिलती है गरीब माता-पिता व उनकी कन्या की पीड़ा को इस तरह से व्यक्त किया गया है।
सुंदर थी सुशील थी और हर कार्य में न्यारी थी,
गरीब की सयानी बेटी फिर भी कुंवारी थी,
मिला था एक वर टीवी स्कूटर लेकर मांग उसकी भरी थी,
खुद हो गए बेघर पर डोली घर से उठी थी,
2 माह बाद मिली बेटी बाबुल से ना बोली थी,
दहेज में कुछ कमी थी उसकी हालत बोली थी,
चारों तरफ शोर था सुहागिन ही तो मरी थी।।
दहेज प्रथा के कारण: आज स्वयं नवयुवक व युवतियां शिक्षित होकर विवाह कर रहे हैं, और अपने माता-पिता से स्वयं दहेज की मांग कर रहे हैं। और कह रहे हैं कि शादी में तो हमने आपका खर्च बचा लिया, लेकिन अब तो दे दीजिए? तो फिर कैसे माता-पिता को जिम्मेदार मान लें, जबकि स्वयं लड़के कॉल लड़कियां शिक्षित होकर दहेज की मांग कर रहे है।
दहेज प्रथा को बढ़ावा देने के लिए समाज भी उतना ही बड़ा गुनहगार है जितना की वर पक्ष के लोग। हमारे समाज में हमेशा से यही कहावत प्रचलित है कि बेटी पराया धन होती है। और यदि किसी कारणवश उनके विवाह में देरी हो जाए या दहेज देने से कन्या के माता-पिता इंकार कर दें, समाज कन्या और उसके माता पिता को दुतकारने लगता है।
और यदि किसी की पुत्री कुरूप या अन्य किसी समस्या से ग्रस्त है, तो ऐसा माना जाता है कि मानो मां-बाप से कितना बड़ा पाप हो गया हो। तथा कन्या व उसके माता-पिता समाज की नजरों से बचने के लिए जानबूझकर दहेज देते हैं। आज दहेज प्रथा को को ब्राइड ग्रूम प्राइज अर्थात् विवाह मूल्य कहना अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि विवाह आज एक व्यवसाय बन गया है, जहां माता-पिता को मुंह मांगी कीमत देकर अपनी कन्या के हाथ पीले करने पड़ते हैं। इस संबंध में मां-बाप की पीड़ा को एक कवि ने अपनी कलम से उकेरा है…
कि पॉकेट में पीड़ा भरी कौन सुने फरियाद?
ऐसा सिस्टम देखकर वह दिन आते याद,
बेटी की शादी होती डोली में पैसे रखकर,
वर पहले ही कह देता उपहार देना भर कर।।
निष्कर्ष: ऐसे में जब तक वर पक्ष के लोग यह नहीं समझते कि विवाहिता कोई दान की चीज नहीं, बल्कि सहभागिनी है, और जब तक समाज से जुड़ी रूढ़िवादी प्रथाओं की समाप्ति नहीं होती, तब तक हजारों नववधू और उनके माता-पिता ऐसे ही दहेज की बलि चढ़ते रहेंगे।
जब तक दहेज के दानव का धरती से अंत नहीं होगा, तब तक नारी के जीवन में मधुमास बसंत नहीं होगा।।