नर्स की आत्मकथा पर निबंध

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एक नर्स की आत्मकथा पर निबंध

आप चिकित्सालय अवश्य गए होंगे, अपने किसी रोगी मित्र, परिवारजन या संबंधी को देखने अथवा स्वयं को चिकित्सक को दिखाने। वहाँ पर आपने नर्स को अवश्य देखा होगा। श्वेत वस्त्रों में, सिर पर विशेष आकार की श्वेत टोपी और पैरों में भी श्वेत जूते-मोजे पहने, तत्परता से इधर-उधर दौड़ते-भागते, दवा देते, रोगी को ले जाते-लाते, मुस्करा कर रोगी के साथ बातें करते। तो वह मैं हूँ। मैं एक नर्स हूँ। मुझे देखते ही रोगी में जीवन की आशा जागृत होती है। बहुत दिनों से सोच रही थी कि मैं आपको अपनी आत्मकथा सुनाऊँ तो चलिए आज मेरे पास समय है मैं अपनी कहानी सुनाती हूँ।

आप मुझे इस चिकित्सालय में देख रहे हैं, मैं विगत कई वर्षों से इस चिकित्सालय में रोगियों की सेवा कर रही हूँ। मैं यहाँ की रहने वाली नहीं अपितु केरल के एक सुदूर छोटे-से गाँव में मेरा जन्म हुआ था। परिवार में माँ-पिता जी, बूढ़ी दादी के अतिरिक्त हम दस भाई-बहिन थे। आप हँस रहे होंगे कि जहाँ शहरों में परिवार में दो या एक बच्चे को अधिक महत्त्व दिया जाता है वहीं दस बच्चे? यहाँ लगभग सभी परिवारों की दशा एक जैसी है।

कृषक परिवार होने के कारण परिवार-जन की संख्या पर बल दिया जाता है। खैर भाई-बहिनों में सबसे बड़ी होने के कारण मैं घर भर की लाडली थी। इसी लाड के कारण माँ-दादी ने मुझे खूब पढ़ाने का निश्चय किया। आयु होने पर मुझे गाँव की पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया। पढ़ाई के प्रति मेरी लगन एवं कुशाग्रता देख पिता जी ने मुझे बैंक-अधिकारी बनाने का निश्चय किया। हाई स्कूल पास करने के बाद मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त करनी चाही, किंतु परिवार के बढ़ते बोझ के चलते मुझे अन्य विकल्प सोचना पड़ा।

मेरी अन्य सहेलियों ने नर्सिंग के फार्म भर दिए थे, सो मैंने भी वही किया। माँ और दादी जी मुझ पर क्रोधित हुई, पर जब मैंने उन्हें पिता जी का बोझ हल्का करने का अपना संकल्प सुनाया तो वे प्रसन्न हो गईं। निश्चित समय पर हमें प्रवेश-परीक्षा के लिए बुलाया गया। वहाँ भी मैंने बाजी मारी और उत्तीर्ण परीक्षार्थियों की सूची में सर्वोच्च स्थान पाकर मैं फूली न समाई। शीघ्र ही दिल्ली के एक जाने-माने चिकित्सालय में प्रशिक्षण के लिए मैंने तैयारी कर ली। डबडबाई आँखों से सबने सुखद भविष्य की कामना करते हुए मुझे विदाई दी।

हरे-भरे सुंदर स्वच्छ प्रदेश को छोड़कर कंक्रीट के भव्य शहर भारत का दिल दिल्ली में आकर जहाँ मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई वहीं अपनों से बिछड़ने का दुख भी। मैं आपको बताना भूल गई कि बचपन से ही मैं विनम, कोमल, शांत, दयालु, सहिष्णु एवं संवेदनशील स्वभाव की थी, इस कारण तीन वर्ष की प्रशिक्षण अवधि में मुझे अधिक कठिनाई नहीं हुई। प्रशिक्षण समाप्त होने के साथ ही मुझे उसी अस्पताल में अनुभव प्राप्त करने के लिए नौकरी मिल गई। दो वर्ष तक मैंने वहाँ अथक परिश्रम का परिचय दिया। इससे प्रसन्न होकर चिकित्सालय के अधिकारियों ने मेरी पदोन्नति कर दी।

प्रशिक्षण काल में सेवा के प्रण को मैंने अपने जीवन का मूलमंत्र मान लिया। सारा दिन मैं चिकित्सालय में मरीजों के बीच व्यस्त रहती, मेरा भरसक प्रयास रहता कि हर रोगी की सेवा करूं। रोगी के कष्टों को देखकर मेरा मन उदास हो जाता, कर्तव्यबोध कर मैं तन-मन-वचन से उसकी पीड़ा कम करने का प्रयास करती, मुझे शांति भी तभी मिलती। छोटे बच्चों को पीड़ा-कष्ट में देख मुझे मेरे छोटे भाई-बहिन याद आ जाते और मेरा मन हाहाकार कर उठता। उस समय मैं अपने तन की सुध-बुध भूलकर उस रोगी बच्चे की सेवा में जुट जाती।

समय का मुझे भान न रहता। मैं रात-दिन सेवा करके उन्हें शीघ्र ठीक करने का प्रयास करती। मेरी निश्छल, निस्वार्थ सेवा भावना से प्रसन्न होकर चिकित्सालय के अधिकारियों ने एक शुभावसर पर मुझे ‘फ्लोरेंस नाइटिंगेल’ की उपाधि से विभूषित किया। यह जानकर माता-पिता को मुझ पर गर्व हुआ। चिकित्सालय के रोगियों के प्रति अपना कर्तव्य निभाने में मैं कोई कमी नहीं करती। उसी प्रकार परिवार के प्रति भी मेरा कर्त्तव्य था। परिवार की अवस्था को सुधार और भाई-बहिनों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए मैंने विदेश जाकर नौकरी करने का मन बनाया। अकेले कमाने वाले पिता जी अवस्था ढल जाने से कमजोर हो गए थे।

अत: तनिक प्रयास से मुझे विदेश जाने का अवसर मिल गया। वहाँ भी मैंने जी-जान से रोगियों की सेवा की। अब मेरा परिवार सुखी और संपन्न है। उन्हें देखकर मैं भी प्रसन्न हूँ। सभी भाई-बहिनों को उच्च शिक्षा दिला कर अच्छी नौकरी पर लगाया। मेरी छोटी बहिन भी नर्स है और मेरे साथ दिल्ली के उसी चिकित्सालय में नौकरी कर रही है।

एक नर्स होने के नाते मझे मेरा कर्तव्य बोध हर समय सचेत रखता है। मैं समय का सख्ती से पालन करती हैं। रोगियों को समय पर दवा देती, रोगी के चार्ट्स तैयार कर उनके भोजन की गुणवत्ता का ध्यान रखती, सुपाच्य भोजन की सलाह देती, रोगियों की स्वच्छता की ओर विशेष ध्यान देती। सबसे पहले रोगियों को आराम एवं मानसिक शांति प्रदान करना आवश्यक है। कभी-कभी थकावट के कारण कुछ पल आराम करने की इच्छा होती और उसी समय किसी रोगी की पुकार होती तो मैं बिना झंझलाए, कुड़कुड़ाए उसकी सेवा में उपस्थित हो जाती। रोगियों की पीड़ा एवं विवशता याद कर मैं अपनी थकावट, आराम, खाना-पीना सब भूल जाती। मुझे पता है कि रोगियों को केवल दवा की ही जरूरत नहीं होती अपितु अपनापन, सहानुभूति आदि संबल की भी आवश्यकता होती है। उस समय मेरे आगे अपना सुख-आराम सब नगण्य हो जाता है।

आजकल सेवा कार्य भी व्यवसाय बनता जा रहा है। सेवा भावना के पीछे भी दर्भावना बन गई है, जो स्वार्थ प्रलोभन, छल-कपट के वशीभूत होकर रोगियों के साथ दुर्व्यवहार करती हैं वे नर्से इस व्यवसाय के लिए कलंक हैं। उदार, ममतामयी, सहिष्णु, निस्वार्थ, विनम्र, मृदुभाषी जैसे गुणों से युक्त लड़कियाँ ही आदर्श नर्स बन सकती हैं। इस व्यवसाय में उन्हें ही जाना चाहिए जो नर में नारायण को देखते हैं। इस चिकित्सालय में रोगियों की निस्वार्थ सेवा करते हुए एक लंबा समय गुजर गया है पर मैं अपने कर्त्तव्य से थकी नहीं हूँ क्योंकि निस्स्वार्थ सेवा मेरा भीष्म-प्रण है। आज इसी कारण लोग मुझे मान-सम्मान, स्नेह, अपनापन आदि देते हैं। यही मेरे जीवन की अमूल्य संपत्ति है। मैं अपने इस नर्स जीवन से पूर्णतया संतुष्ट हूँ।

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