अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर निबंध

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अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर निबंध
Hindi Essay on International Day of Yoga
International yoga Diwas par nibandh

योग की महिमा को रेखांकित करते हुए भृतहरि अपने ग्रंथ ‘वाक्यपदीय’ के प्रारंभ में यह श्लोक प्रस्तुत करते हैं –

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां, मलं शरीररस्य च वैद्यकेन।
योडपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां पतंजलि प्रांजलिरानलोडस्मि॥

अर्थात- योग से चित्त का, पद (व्याकरण से वाणी का एवं वैद्यक से शरीर का मल जिन्होंने दूर किया, उन मुनि श्रेष्ठ पतंजलि को मैं अंजलिबद्ध होकर नमस्कार करता हूँ। स्पष्ट है कि योग मानव के उत्कर्ष का वह माध्यम है, जिसे भारत ने विश्व को सौंपा।

सुखद है कि योग सभी मानव के उत्कर्ष का जो माध्यम भारतीय मनस्वियों ने विश्व को सौंपा, उसकी सुरभि से आधुनिक विश्व के सुरभित होने की शुरुआत हो चुकी है। भारतीय मनीषा, दर्शन एवं प्राचीन परम्परा के लिए वह एक असाधारण क्षण था, जब 11 दिसंबर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र जनरल असेम्बली द्वारा 21 जून को प्रतिवर्ष अतंर्राष्ट्रीय योग दिवस (International Yoga Day) के रुप में मनाए जाने की घोषणा की गई। इसका काफी कुछ श्रेय भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जाता है, जिन्होंने 27 सितंबर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र जनरल असेम्बली (United Nation General Assembly) में दिए गए अपने भाषण में वैश्विक स्तर पर ‘योग दिवस’ मनाए जाने की जबरदस्त पैरोकारी करते हुए यह कहा था कि योग भारत की पुरातन परम्परा की एक अमूल्य भेंट है। यह मन और शरीर, विचार और कार्य, संयम और मानसिक आनंद के बीच एकरुपता लाने वाली सौगात तो है ही, मनुष्य और प्रकृति के मध्य अनुकूलन को भी बढ़ाती है।

स्वास्थ्य एवं समृद्धि के लिए योग को हितकर बताते हुए उन्होंने अपने उद्बोधन में यह भी कहा था कि योग की मदद से हम जलवायु परिवर्तन जैसे खतरे से भी निपट सकते हैं। भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहल रंग लाई और 27 सितंबर, 2014 के उनके उद्बोधन के के बाद ही 11 दिसंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा 21 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ घोषित किया गया। संयुक्त राष्ट्र के इस कदम की वैश्विक स्तर पर खूब सराहना भी हुई।

जिस समय विश्व के अनेक राष्ट्र सभ्यता का ‘क,ख,ग’ सीख रहे थे, उस समय विश्व गुरु के रुप में सुसभ्य एवं सुसंस्कृत भारत की वैजयंती समूचे विश्व में लहरा रही थी। इसी भारत के तपस्वियों ने विश्व कल्याण के लिए योग जैसी अमूल्य भेंट विश्व को दी। लगभग 6000 से भी अधिक वर्षों पूर्व भारत में योग का उद्गम हुआ और हमने इसे अपनी शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए अपनाया। योग के आदि गुरु जहां भगवान शिव माने जाते हैं, वहीं द्वापर में योग के कल्याणकारी स्वरुप को रेखांकित करने के कारण श्रीकृष्ण ‘योगेश्वर’ कहलाए।

योग का अर्थ अत्यंत व्यापक एवं इसका फलक बहुत विस्तृत है। श्रीमद्भगवद् गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग के विभिन्न रुपों की चर्चा करते हुए यह प्रतिपादित किया कि योग तो जीवन की परेशानियों का समाधान है। इसीलिए वह मोहग्रस्त अर्जुन को योग की शरण में जाने का उपदेश देते हैं। योग की सार्थकता एवं इसकी महत्ता का पता इसी से चलता है कि श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने उपदेशों में 100 से अधिक बार ‘योग’ शब्द का प्रयोग किया। बहुधा ‘योग’ की समझ रखने वाले पश्चिमी देशों में ‘योग’ को लेकर जो धारणा बनाई गई, उसके अनुसार योग को शारीरिक क्रियाओं एवं मुद्राओं से जोड़कर देखा जाता रहा है। यह धारणा योग के वास्तविक अर्थ के विपरीत है। योग का अर्थ एवं स्वरुप अत्यंत व्यापक है। यह तो वह अनुशासन है, जो कि आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है। योग का संबंध तो आत्मा और परमात्मा के योग या एकत्व एवं परमात्मा को प्राप्त करने के नियमों एवं उपायों से है।

भारत की प्राचीन परम्परा के अनुसार दर्शन के दो विभाग हैं- 1. वैदिक एवं, 2. अवैदिक। योग वैदिक दर्शन के अंतर्गत आता है। भारतीय वैदिक दर्शन के छह घटकों में से योग भी एक है। भारतीय दर्शन के छह घटकों-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा एवं वेदान्त में से ‘योग’ का विशेष महत्व है, क्योंकि भारतीय मान्यताओं एवं परम्पराओं के अनुसार जीवन को कृतार्थ बनाने के लिए मनुष्य को जीवन में क्षण-प्रतिक्षण योग का आधार लेना ही पड़ता है। योग का एकमेव ध्येय चित्तवृत्ति-निरोध की अवस्था को प्राप्त करना है। यानी मनुष्य के मन को विषयों की ओर होने वाली दौड़ को रोक कर उसको पूर्णतः अंतर्मुख करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के दौरान साधक के सन्मुख उपस्थित होनी वाली आपत्तियां मन के बाहरी ओर प्रवृत्ति क्यों होती हैं, आदि विषयों के स्पष्टीकरण के लिए जीव और जगत का सत्य स्वरुप, ईश्वर का स्वरुप आदि विषयों का विवेचन आवश्यक होने के कारण उनका समावेश योगदर्शन में किया गया है।

महर्षि पतंजलि को योगदर्शन को व्यवस्थित स्वरुप देने का श्रेय जाता है। उनके द्वारा सृजित ‘योगसूत्र’ योगदर्शन का मूल ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने योग को चित्त की वृत्तियों के निरोध के रुप में परिभाषित किया है। ‘योगसूत्र’ न तो कोई धार्मिक ग्रंथ है और न ही यह किसी देवी-देवता पर आधारित है। यह शारीरिक योग मुद्राओं का शास्त्र भी नहीं है। इसमें चित्तवृत्ति निरोध को मन की परमावधि एकाग्रता के रुप में रेखांकित किया गया है, जो कि योग दर्शन का प्रमुख उद्देश्य भी है।

पतंजलि का योगसूत्र ‘अष्टांगयोग‘ के नाम से भी जाना जाता है। यह नाम इसके आठ अंगों के नाम पर पड़ा। ये आठ अंग हैंयम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि। ये आठ अंग लौकिक एवं अलौकिक लाभ का पथ प्रशस्त करते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ये पांच यम होते हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्राणिधान, ये पांच नियम हैं। यम का सार्वभौमिक महत्व है, क्योंकि इनके आचरण के लिए देशकाल या परिस्थितियों का कोई बंधन नहीं होता है। ये तो वे पांच महाव्रत हैं, जो कि मनुष्य और समाज दोनों का कल्याण करते हैं। जीवन को विकास के पथ पर ले जाते हैं, तो सामाजिक शुचिता को भी बनाए रखते हैं। यह एक स्वाभाविक-सी बात है कि यमों का पालन न करने वाला अर्थात हिंसक, असत्यभाषी, चोर, कामासक्त एवं अत्यंत लोभी मनुष्य सदैव सामाजिक स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध होता है। स्पष्ट है कि यमों के पालन से एक सुसंस्कृत, सभ्य, परिष्कृत एवं कल्याणकारी समाज का निर्माण होता है।

शौच आदि नियम वैयक्तिक विकास का पथ प्रशस्त करते हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणिधान इन पांच नियमों की अवज्ञा करने वाला अर्थात मलिन, असंतुष्ट, उच्छृखल, अनभ्यासी एवं नास्तिक मनुष्य भले ही प्रत्यक्षतः समाज को पथभ्रष्ट या अस्त-व्यस्त नहीं करता है, किंतु वह प्रत्यक्ष रुप से अपने जीवन को नष्ट कर लेता है। ऐसा नहीं है कि समाज पूर्णतः अप्रभावित रह जाता है। वस्तुतः अस्वच्छता और असंतुष्टता के कारण समाज न सिर्फ प्रतिकूल रुप से प्रभावित होता है, बल्कि अव्यवस्थित भी होता है, किंतु सर्वाधिक प्रभावित व्यक्तिगत जीवन होता है, जो कि अप्रत्यक्ष रुप से समाज पर भी प्रभाव डालता है।

इस तरह हम देखते हैं कि यम और नियम दोनों व्यक्तिगत एवं सामजिक स्तरों पर विशेष रुप से महत्वपूर्ण हैं। यम एवं नियम के अलावा योग के शेष छह अंग- आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि व्यक्तिगत उत्कर्ष के माध्यम हैं। आसन में जहाँ योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रण प्राप्त किया जाता है, वहीं प्राणायाम, प्राण पर नियंत्रण की विधि है। प्रत्याहार के अंतर्गत जहाँ इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाया जाता है, वहीं धारणा का संबंध एकाग्रचित्त होने से है। ध्यानस्थ होने की क्रिया ध्यान है, तो समाधि शब्दों से परे परम चैतन्य की अवस्था है। स्पष्ट है कि आठ आयामों वाला योग का मार्ग अत्यंत कल्याणकारी एवं लाभप्रद है। योग व्यक्तिगत, सामाजिक एवं आध्यात्मिक उन्नति एवं उत्थान के मार्ग को प्रशस्त करता है।

आधुनिक विश्व में आतंकवाद, अशांति, युद्ध, हिंसा, जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं ने सिर उठाया है। इनमें समूचा विश्व दहल रहा है। इन चुनौतियों से निपटने में योग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, क्योंकि ये सभी समस्याएं, जो बड़ी चुनौती बनकर हमारे सामने खड़ी हैं, वस्तुतः ये सभी अनियंत्रित चित्तवृत्तियों की ही देन हैं, जिनका निरोध करना ही योग का मूलआधार है। यह अकारण नही है कि हमारे वैदिक वाङ्गमय, विशेषतः उपनिषदों में अनेक बार योग की उपयुक्तता को स्वीकृति प्रदान की गई है। ऐसा इसकी वैश्विक महत्ता को ही दर्शाने के लिए ही किया गया। वर्तमान कालखंड की विसंगतियों एवं विडंबनाओं को देखते हुए योग की वैश्विक ग्राह्यता एवं उपदेयता बढ़ी है, जिसे ‘योग दिवस’ जैसे अंतर्राष्ट्रीय आयोजन ने और मजबूती प्रदान की है।

भारतीय संस्कृति लोक-कल्याण की रही है तथा इसमें सार्वभौमिकता एवं सर्वांगीणता पर विशेष बल दिया गया है। विश्व के कल्याण की कामना करने वाली यह संस्कृति लोक-कल्याण की उदार भावना से प्रेरित है। योग के वैश्विक प्रसार से भारतीय संस्कृति के मूल्य और अधिक श्रेष्ठता को प्राप्त करेंगे और समूचा विश्व हमारी सांस्कृतिक श्रेष्ठता का कुछ इस प्रकार कायल बनेगा–

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुखभाग भवेत्॥

अर्थात सभी सुखी हों, विघ्न रहित हों, कल्याण का दर्शन करें तथा किसी को कोई दुख प्राप्त न हो।

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