अपनी सीमा से ज्यादा ना सोचे

                   अपनी सीमा से ज्यादा ना सोचे

प्रस्तावना

तेते पांव पसारिए ,जेती लंबी सौर इस पंक्ति का तात्पर्य है कि व्यक्ति को अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। जीवन में अपनी इच्छाओं को नहीं अपनी जरूरतों को महत्व देना चाहिए। इच्छाओं का तो कोई अंत नहीं है।क्योंकि एक इच्छा पूर्ति होते ही हम अपनी दूसरी इकच्छापूर्ती के विषय मे सोचना आरंभ कर देते है।सभी इक्छाओ की पूर्ति तो तभी हो सकती है जब हम साधन संपन्न होंगे और हमारे प्राप्त धन खर्च की क्षमता होगी।

एक उदाहरण

मान लीजिए एक आदमी चादर ओढ़ कर सोना चाहता है। सोते समय पैर पसारना स्वाभाविक ही है। पर यदि चादर छोटी हुई, तो उसमें पैर ढकेंगे नही। पैर तो बाहर ही जा पड़ेंगे।ऐसे में क्या किया जाए चादर का आकार तो बढ़ाया नहीं जा सकता। अब तो सिर्फ एक ही रास्ता है कि अपने पैरो को सिकोड़ लिया जाए। जब पैर आवश्यकतानुसार सिकुड़ जाएंगे तो चादर कम नहीं पड़ेगी। यह उक्ति का प्रयोग प्रायः उन लोगों की नीती का पाठ सिखाने के लिए किया जाता है ।जो अपनी आमदनी की तुलना में कई गुना ज्यादा खर्च करते हैं ।ऐश्वर्य,विलास तथा मिथ्या प्रदर्शन के रोगी होते हैं। ऐसे लोग अपनी आय का सीमित साधनों का ध्यान न रखकर अनाप-शनाप खर्च करते रहते हैं।ओर फिर कर्ज के नीचे दबकर बराबर शारीरिक तथा मानसिक कष्ट उठाने के लिए विवश रहते हैं।

मितव्ययिता एक उदाहरण


मितव्ययिता इस संदर्भ में अचूक निदान है ।जो व्यक्ति अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओ की पूर्ति करते समय सोच- समझकर खर्च करता है ।अनुपयोगी वस्तुओं को खरीदने में धन का दुरुपयोग नहीं करता ,वह हमेशा सुखी रहता है कभी-कभी ऐसे व्यक्ति को कंजूस होने का आरोप लगा दिया जाता है ।उसे हेय दृष्टि से भी देखा जाता है ।लेकिन मितव्ययिता तथा कंजूसी में बड़ा अंतर है ।कंजूस तो वह जो धनसंपदा को हमेशा अपने पास ही रखता है ।और जरूरत पड़ने पर भी उसे खर्च करने में कतराते है ।दूसरी ओर मितव्ययि वह है ,जो धन को अपनी जरूरतों की प्राथमिकता को ध्यान में रखकर विवेकपूर्ण ढंग से खर्च करता है ।ऐसा व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर रोगियों को दवाइयां ,भूखों को भोजन ,निर्धनों को तरह-तरह की आर्थिक सहायता प्रदान करता है, परंतु कंजूस यह सब नहीं कर सकता। कंजूस मान अपमान की कोई चिंता नहीं करता लेकिन मितव्यई अपने सम्मान तथा लोक – लाज के विषय में हमेशा सतर्क रहता है।

फिजूल का खर्चा


कई बार ऐसा देखा गया है कि कुछ लोग अपने घर होने वाले आरंभिक मंगल -कार्य -शादी ब्याह, मुंडन संस्कार ,संतान जन्म आदी में अपनी सीमा से बाहर खर्च कर डालते हैं। इस तरह की परंपरा वो डाल तो लेते हैं। परंतु उसे निभा नहीं पाते ।अब ऐसे में अपने अहम की संतुष्टि के लिए चादर से बाहर पैर पसारते हैं। और जिंदगी भर कर्ज में डूबे रहते हैं ।यही नहीं कर्ज़ का ऐसा बोझ आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाते हैं ।इस तरह उनका पारिवारिक जीवन अशांत हो जाता है ,जो एक अभिशाप है।

उपसंहार


आज हम विज्ञान के युग में जी रहे हैं विज्ञान के अनुसंधान ने जीवन को जहां अधिक सुविधाभोगी बना दिया है। वहीं महंगाई को भी काफी लचीला किया है ।महंगाई के इस दौर में यदि किसी का परिवार बहुत बड़ा है ।और खाना खाने वालों के अनुपात में कमाने वाले कम हो तो परिवार का सारा संतुलन बिगड़ जाएगा। ऐसे में दरिद्रता की छाया सारे परिवार को नाटकीय जीवन बिताने के लिए विवश कर देती है ।इस तरह से बड़े परिवारों का जीवन स्तर गिरेगा और उनके जीवन का उचित विकास नहीं होगा ना तो जरूरत का पूरा भोजन मिलेगा ओर न ही कपड़ा तथा रहने को मकान ।इसलिए सीमित परिवार भी उक्त कामयुक्ति के संदर्भ में अच्छे उदाहरण है। यदि व्यक्ति अपना पैर चादर के अनुपात में पसारेगा तो सुखी रहेगा।


Leave a Comment